- Kanika Chauhan
कड़वे करेले की खेती के मीठे लाभ

मंडियों में दिखने को मिलता है। वैसे आजकल किसी भी फल या सब्जी के लिए तय कुदरती महीनों का कोई औचित्य नहीं रह गया क्योंकि अब यह पूरे साल मिलते हैं। फिर भी प्राकृतिक रूप से करेला जायद की फसल का हिस्सा है। सब्जी और औषधि के रूप में इस्तेमाल करने के लिए कच्चा करेला ही ज्यादा अच्छा होता है।
करेला अपने गुणों के लिए नहीं जाना जाता बल्कि अपने कड़वे स्वाद के कारण हमेशा से जाना जाता है लेकिन जब तमाम लाइफस्टाइल बीमारियों ने खासकर मधुमेह और रक्तचाप ने बड़ी तादाद में लोगों को दबोचा है तब से करेले को उसके कड़वे स्वाद की बजाय मीठे गुणों की बदौलत उपयोग के अलावा सब्जी के रूप में इसका अच्छा खासा उपयोग होता है। कहने का मतलब यह है कि ज्यादा लोकप्रिय न होने के बावजूद भी करेले में तमाम संभावनाएं लोगों ने सदियों पहले ढूंढ़ ली थीं।
गर्मियों में खासकर अरहर उत्पादक क्षेत्रों में भरवां करेले और अरहर की दाल बहुत शौक से खाई जाती है। भिंडी करेले, प्याज करेले, आलू करेले, करेला अचार, आम करेला जैसी तमाम करेले के व्यंजन काफी मशहूर हैं। कानपुर, लखनऊ, बनारस, पटना के इलाकों में गर्मियों में करेले की भुजिया बहुत शौक से खाई जाती है। मगर सबसे ज्यादा करेले का जो व्यंजन मशहूर है वह भरवां करेला ही है।
लेकिन अब करेले को खान-पान से ज्यादा उसके औषधीय गुणों के चलते सम्मान मिल रहा है। यहां तक कि जो लोग करेले की सब्जी को शौक से नहीं खाते वह भी इसके अचूक औषधीय गुणों के चलते मुरीद हैं। तो सोचिए इसकी खेती की जाए तो कितनी फायदेमंद होगी। आज हम इस लेख के माध्यम से आपको करेले की खेती के बारे में बता रहें है तोकि आप भी इसकी खेती कर के अच्छा लाभ कमा सकें।
जलवायु :- करेला के लिए गर्म एवं आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है करेला अन्य कद्दू वर्गीय फसलों की अपेक्षा अधिक शीत सहन कर लेता है परन्तु पाले से इसे नुकसान होता है।
भूमि :- इसको विभिन्न प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है किन्तु उचित जल धारण क्षमता वाली जीवांश युक्त हल्की दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है वैसे उदासीन पी.एच. मान वाली भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी रहती है नदियों के किनारे वाली भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है कुछ अम्लीय भूमि में इसकी खेती की जा सकती है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाएं।
बीज बुवाई
बीज की मात्रा :- 5-7 किलो ग्राम बीज प्रति हे. पर्याप्त होता है। एक स्थान पर 2-3 बीज 2.5-5 से. मि. की गहराई पर बोने चाहिए बीज को बोने से पूर्व 24 घंटे तक पानी में भिगो लेना चाहिए इससे अंकुरण जल्दी और अच्छा होता है।
बोने का समय
मैदानी क्षेत्र के लिए :-
ग्रीष्म कालीन फसल जनवरी - अप्रैल
वर्षा कालीन फसल जून - जुलाई
आर्गनिक खाद :-
करेले की फसल में अच्छी पैदावार लेने के लिए उसमें आर्गनिक खाद, कम्पोस्ट खाद का होना अनिवार्य है। इसके लिए एक हे. भूमि में लगभग 40-50 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से गली, सड़ी हुई खाद इसके अतिरिक्त आर्गनिक खाद 2 बैग भू-पावर वजन 50 किलो ग्राम, 2 बैग माइक्रो फर्टीसिटी कम्पोस्ट वजन 40 किलो ग्राम, 2 बैग माइक्रो नीम वजन 20 किलो ग्राम, 2 बैग सुपर गोल्ड कैल्सीफर्ट वजन 10 किलो ग्राम, 2 बैग माइक्रो भू-पावर वजन 10 किलो ग्राम और 50 किलो अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह से मिलाकर मिश्रण तैयार कर खेत में बोने से पूर्व इस मिश्रण को खेत में समान मात्रा में बिखेर दें। इसके बाद खेत की अच्छे तरीके से जुताई करें खेत तैयार कर बुवाई करें।
और जब फसल 25-30 दिन की हो जाए तब उसमें 2 बैग सुपर गोल्ड मैग्नीशियम वजन 1 किलो ग्राम और माइक्रो झाइम 500 मि.ली. को 400 लीटर पानी में मिलाकर अच्छी तरह से घोलकर इस घोल को फसल में अच्छी तरह से छिड़काव करें और हर 15 व 20 दिन के अंतर से दूसरा व तीसरा छिड़काव करें।
सिचाई :- करेले की सिचाई वातावरण, भूमि की किस्म, आदि पर निर्भर करती है ग्रीष्म कालीन फसल की सिंचाई 5 दिन के अंतर पर करते रहें जबकि वर्षाकालीन फसल की सिंचाई वर्षा के ऊपर निर्भर करती है।
खरपतवार :- पौधों के बिच खरपतवार उग आते है उन्हें उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
कीट नियंत्रण
लालड़ी :- पौधों पर 2 पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है यह कीट, पत्तियों और फूलों को खाता है इस कीट की सुंडी भूमि के अन्दर पौधों की जड़ों को काटती है।
रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए।
फल की मक्खी :- यह मक्खी फलों में प्रवेश कर जाती है और वहीं पर अंडे देती है अण्डों से बाद में सुंडी निकलती है वे फल को बेकार कर देती है यह मक्खी विशेष रूप से खरीफ वाली फसल को अधिक हानी पहुंचाती है।
रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर 250 मि.ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिड़काव करना चाहिए।
सफ़ेद ग्रब :- यह कद्दू वर्गीय पौधों को काफी हानी पहुंचाती है यह भूमि के अन्दर रहती है और पौधों की जड़ों को खा जाती है जिसके करण पौधे सुख जाते है।
रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए भूमि में नीम की खाद का प्रयोग करें।
रोग नियंत्रण
चूर्णी फफूंदी :- यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूंदी के कारण होता है पत्तियों एवं तनों पर सफ़ेद दरदरा और गोलाकार जाल सा दिखाई देता है जो बाद में आकार में बढ़ जाता है और कत्थई रंग का हो जाता है पूरी पत्तियां पिली पड़कर सुख जाती है पौधों की बढ़वार रुक जाती है।
रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर 250 मि.ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिड़काव करना चाहिए।
मृदुरोमिल फफूंदी :- यह रोग स्यूडोपरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूंदी के कारण होता है रोगी पत्तियों की निचली सतह पर कोणाकार धब्बे बन जाते है जो ऊपर से पीले या लाल भूरे रंग के होते है।
रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर 250 मि.ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिड़काव करना चाहिए।
एन्थ्रेकनोज :- यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है इस रोग के कारण पत्तियों और फलों पर लाल काले धब्बे बन जाते है ये धब्बे बाद में आपस में मिल जाते है यह रोग बीज द्वारा फैलता है।
रोकथाम :- बीज के बोने से पहले गौमूत्र या कैरोसिन या नीम का तेल के साथ उपचारित करना चाहिए।
तुड़ाई :- फलों की तुड़ाई छोटी व कोमल अवस्था में करनी चाहिए आमतौर पर फल बोने के 75-90 दिन बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है फल तोड़ने का कार्य 3 दिन के अंतर पर करते रहें।
उपज :- इसकी उपज 100-150 क्विंटल तक प्रति हे. मिल जाती है।