- Kanika Chauhan
ख्वाहिश
जब बच्चे थे तो जवानी की ख्वाहिश थी। अब जब जवान हुए तो, उस बचपन की ख्वाहिश है
जब बेरोजगार से थे तो नौकरी की ख्वाहिश थी। और अब जब नौकरी मिली तो घर की ख्वाहिश है रहते थे जब घर में सारा सारा दिन… तब बाहर रहने की ख्वाहिश थी।
और अब जब हो गई बोरियत सी इन होस्टल की रोटियों से, तो मम्मी के हाथों बने खाने की ख्वाहिश है।
बहुत अखरता था पापा का वो डाटना, और मम्मी का वो हर बात पर टोकना।
पर अब उनसे बहुत दूर है तो, उनकी वो फिक्र भरी डांट सुनने की ख्वाहिश है।
जब छोटी सी थी तो … सजने सवरने की ख्वाहिश थी।
कोई करे मेरी भी तारीफ, अपने बारे में कुछ भी ….
अच्छा सुनने की ख्वाहिश थी। और आज जब सजना सवरना
थोप दिया है मुझ पर, तो इन सोने की जंजीरों को तोड़ने की खवाहिश है।
बचपन में दोस्तों से, आगे निकल जाने की ख्वाहिश थी।
पर अब तो उन यारों से मिलने की ख्वाहिश है। इक समय था जब मन को आजाद फिरने की ख्वाहिश थी।
और अब पूरी आजाद हूँ फिर भी… मम्मी पापा के साय में रहने की ख्वाहिश है।